मंगलवार, 29 मार्च 2022

दुलाई वाली - बंग महिला

 





    बंग महिला  :दुलाई वाली

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने आधुनिक हिन्दी कहानी की आरंभिक कहानियों में ‘सरस्वती’ में प्रकाशित  कहानियों को गिना है – जिनमें इंदुमती (1900) – किशोरी लाल गोस्वामी, ग्यारह वर्ष का समय (1903ई-),  और  दुलाई वाली’ (1907) को उन्होंने भावप्रधान कहानियों में माना है। पहली कहानी माने जाने के संदर्भ में उन्होंने ‘दुलाई वाली’ को तीसरे नंबर पर रखते हुए लिखा है-

‘‘ यदि ‘इंदुमती’ किसी बंगला कहानी की छाया नहीं है तो हिंदी की पहली कहानी यही ठहरती है। इसके उपरांत ‘ग्यारह वर्ष का समय’ फिर ‘दुलाई वाली’ का समय आता है।

‘दुलाई वाली’ की रचयिता ‘बंग महिला’ हैं। बंग महिला का असली नाम राजेन्द्र बाला घोष था। इनका जन्म सन् 1882 ई. में हुआ था। वे मिरजापुर निवासी प्रतिष्ठित बंगाली सज्जन बाबू राम प्रसन्न घोष की पुत्री और बाबू पूर्णचंद्र की धर्मपत्नी थीं। इन्होंने हिंदी में कुछ मौलिक कहानियों की रचना तो की ही साथ ही कई बंगला कहानियों का अनुवाद भी किया। उनके द्वारा रचित ‘दुलाई वाली’ सन् 1907 ई- में ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हुई थी। सन् 1910 ई में शुक्ल जी के संपादन में इनका संकलन ‘कुसुम संग्रह’ के नाम से प्रकाशित हुआ।


                                                                           बंग महिला

‘दुलाई वाली’ आधुनिक हिन्दी कहानी की प्रारम्भिक रचना है। एक तरह से आधुनिक कहानी के आकार-ग्रहण की कुलबुलाहट को इस कहानी में महसूस किया जा सकता है। शिल्प की बुनावट और शैली की कसावट इस कहानी में नहीं है। बेहद सीधी और सपाट बयानगी का मुजाहिरा होता है। हल्की कथावस्तु को बहुत हल्के-फुल्के ढंग से ही कहानीकार ने प्रस्तुत कर दिया है।

वंशीधर और नवलकिशोर दोनों प्रगाढ मित्र हैं। वंशीधर सरल व गंभीर व्यक्ति हैं किंतु नवलकिशोर हँसोड़ और मजाकिया हैं। उनके मजाक से विशेष रूप से वंशी की पत्नी डरी और चिढी रहती थी। किंतु पति की मित्रता के कारण वह शांत थी। पूरी कहानी नवलकिशोर के मजाकिया स्वभाव और रेल-यात्र के दौरान वंशीधर को छद्म वेष में परेशान करने के इर्द-गिर्द घूमती है।

वंशीधर अपने ससुराल आए हैं। आचानक ही तार मिलता है कि उन्हें सपत्नी वापस जाना है क्योंकि उनका मित्र भी आ रहा है और मुगलसराय से इलाहाबाद तक की यात्र वे एक साथ करेंगे। वंशीधर मित्र से मिलने और साथ चलने की खुशी में मग्न होते हैं किंतु जानकी को यह नहीं सुहाता। नवलकिशोर ने जहाँ और जिस समय मिलने का समय दिया था वे नहीं मिले। वंशीधर काफी चिढे हुए थे किंतु क्या करते, सफर तो करना ही था। मुसीबत तब हुई जब उसी डिब्बे में एक ऐसी महिला सवारी चढी जिसका पति छूट गया था। सभी लोग सहानुभूति तो दिखा रहे थे किंतु कोई उसकी मदद को आगे नहीं आ रहा था। ऐसे में वंशीधर ने उसे सही स्थान पर पहुँचाने का जिम्मा लिया। वंशीधर को पूरा यकीन था कि महिला का छूटा पति अगले स्टेशन पर जरूर तार कर देगा कि वह आ रहा है। बदनामी और अन्य कई तरह की बातों से बचने के लिए वे कुछ सवारी महिलाओं के साथ अगले स्टेशन पर उतरे। वे तार पता करने गए, इस बीच सभी सवारियाँ चली गयीं। उधर तार न आया देखकर वंशीधर पेशोपेश में फँस गए। क्या करें, क्या न करें। झुंझलाकर उस दुलाई वाली से साथ आई सवारियों के बारे में पूछा- ‘‘ तू ही उन स्त्रियों को कहीं ले गई है। ’’ इस पर दुलाई वाली ने घुंघट उठाई और वंशीधर को पता चला कि वह कोई और नहीं उसका मित्र नवलकिशोर है। सब ठठाकर हँस पड़े।


शिल्प की अनगढता के बावजूद इसमें आकस्मिकता, रोचकता, नाटकीय तत्व आदि को अपनाया गया है जिसके कारण प्रारम्भ की अवयस्कता के बावजूद यह कहानी पाठक को निराश नहीं करती।

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